
परवेज़ आलम की खास रिपोर्ट ………..
झारखंड में भाजपा की हालत इन दिनों कुछ ऐसी हो गई है जैसे कोईपहलवान दो मुकाबलों में लगातार पटखनी खाकर चारों खाने चित हो गया हो। विधानसभा चुनाव में दूसरी बार हार का स्वाद चखने के बाद पार्टी की सक्रियता पर मानो विराम लग गया है। जो नेता चुनावी मौसम में चौबीसों घंटे दौरे कर रहे थे, वे अब अपने-अपने पुराने कामों में लौट गए हैं। आलम यह है कि संगठन का काम ठप पड़ा है और नेता प्रतिपक्ष का चयन भी अब तक नहीं हो पाया है।
रघुवर दास की ‘घर वापसी’ पर सवाल.
भाजपा की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ओडिशा के राज्यपाल पद से इस्तीफा देकर झारखंड लौटे रघुवर दास भी पार्टी में किसी जिम्मेदारी के इंतजार में हैं। चर्चाएं थीं कि उन्हें संगठन में बड़ा पद दिया जाएगा, लेकिन फिलहाल उनकी भूमिका सिर्फ प्राथमिक सदस्यता तक ही सीमित रह गई है। पार्टी के अंदरखाने में यह कयास भी लगाए जा रहे थे कि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया जा सकता है, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई कदम नहीं बढ़ा है। जिस जोश और उमंग के साथ उन्होंने भाजपा में दोबारा कदम रखा था, वह अब ठंडा पड़ता दिख रहा है।
नेता प्रतिपक्ष का पेंच फंसा.
विधानसभा का दूसरा सत्र 24 फरवरी से शुरू होने वाला है और भाजपा अब तक नेता प्रतिपक्ष के नाम की घोषणा नहीं कर पाई है। सूत्रों की मानें तो दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद इस पर निर्णय लिया जाएगा। फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ही इस दौड़ में सबसे आगे दिख रहे हैं। अगर पार्टी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखती है, तो रांची से सातवीं बार विधायक चुने गए चंद्रेश्वर प्रसाद सिंह (सीपी सिंह) को यह जिम्मेदारी मिल सकती है।
आयोगों की नियुक्तियां अटकीं, कोर्ट सख्त.
भाजपा की निष्क्रियता का असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ रहा है। सूचना आयोग समेत कई महत्वपूर्ण आयोगों में नियुक्तियां अब तक लटकी हुई हैं, क्योंकि इसके लिए नेता प्रतिपक्ष की सहमति जरूरी होती है। हाई कोर्ट ने कई बार सरकार को फटकार लगाई है कि अगर नेता प्रतिपक्ष का चयन नहीं हो पा रहा है तो विपक्ष अपने किसी सदस्य को नामित करे, लेकिन अदालत की बात भी अनसुनी ही रह गई है। सूचना आयोग में वर्षों से मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं, लेकिन नियुक्तियों को लेकर कोई ठोस पहल नहीं दिख रही।
सोशल मीडिया पर सक्रियता, जमीनी स्तर पर सन्नाटा.
झारखंड भाजपा की मौजूदा स्थिति पर नजर डालें तो लगता है कि पार्टी अभी तक हार के ग़म से उबर नहीं पाई है। चुनावी साल में जो उर्जा और सक्रियता भाजपा में देखने को मिल रही थी, वह अब लगभग गायब हो गई है। पार्टी के नेता सिर्फ सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते नजर आ रहे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई बड़ा आंदोलन या अभियान नहीं दिख रहा। ऐसा लगता है कि भाजपा अब अगली बार चुनावी बिगुल बजने तक ‘मौन व्रत’ में ही रहने वाली है।