
परवेज़ आलम की रिपोर्ट …………..
झारखंड के गिरिडीह जिले में जंगली हाथियों का कहर जारी है। बीती रात चार हाथियों के झुंड ने शिकरा हेम्ब्रम के घर को तोड़ डाला और उन्हें रौंदकर मौत के घाट उतार दिया। यह हादसा सिर्फ एक परिवार की त्रासदी नहीं है, बल्कि पूरे इलाके के लिए एक भयावह सचाई है।
इस घटना की सूचना मिलते ही पूर्व मंत्री बेबी देवी ने मौके पर पहुंचकर पीड़ित परिवार से मुलाकात की। उन्होंने हर संभव मदद का भरोसा दिया और तुरंत 40,000 रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की। साथ ही उन्होंने कहा कि शेष 3,60,000 रुपये की राशि जल्द से जल्द दी जाएगी।
बेबी देवी ने ट्वीट करते हुए कहा।
“आज प्रातः शिकरा हेम्ब्रम जी को हाथियों ने कुचलकर मार दिया। मैं घटनास्थल पर गई और उनके परिजनों को हर संभव मदद का आश्वासन दिया। वन विभाग को निर्देश दिया गया है कि पीड़ित परिवार को सहयोग प्रदान किया जाए। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें।”
इससे पहले सनिवार को भी सुगवाटांड़ में हाथियों ने तीन घरों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिया। गीता देवी, विलसी देवी और कौशल्या देवी के घर अब मलबे के ढेर में बदल चुके हैं।
हाथियों ने घरों में रखा धान और अनाज चट कर दिया, और खेतों में लगी आलू की फसल को रौंद डाला। यह घटना न केवल इन परिवारों के लिए आर्थिक झटका है, बल्कि पूरे गांव के लिए डर का कारण भी बन गई है।
कहां से आए ये हाथी?
घटना से पहले हाथियों का झुंड जलेबिया घाटी के पास देखा गया था। वन विभाग स्थिति पर नजर बनाए हुए था, लेकिन रात के अंधेरे में ये झुंड सुगवाटांड़ पहुंच गया।
सरकार और वन विभाग का कदम।
गिरिडीह विधायक सुदिव्य कुमार सोनू ने घटनास्थल का दौरा किया और पीड़ित परिवारों को 10,000 रुपये का चेक और एक-एक पेटी चावल दिया।
वन विभाग ने जानकारी दी कि हाथियों को भगाने के लिए बांकुड़ा से विशेषज्ञों की टीम बुलाई जा रही है।
लेकिन सवाल यही है: क्या सिर्फ राहत राशि और चावल देकर इस समस्या का समाधान हो सकता है?
ग्रामीणों की गुहार: हमें चाहिए सुरक्षा, सिर्फ वादे नहीं।
जंगल और पहाड़ों के पास बसे गांवों के लोग अब अपने ही घरों में असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। हर बार हाथियों का झुंड आता है, तबाही मचाता है, और प्रशासन केवल मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है।
क्या वन विभाग और सरकार के पास इन घटनाओं से निपटने की कोई ठोस योजना है?
कब तक लोग हाथियों के डर के साए में अपनी जिंदगी जीने को मजबूर रहेंगे?
आप क्या सोचते हैं?
क्या झारखंड सरकार और वन विभाग इस समस्या को गंभीरता से ले रहा है?
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