
परवेज़ आलम.
झारखंड की राजनीति में इन दिनों सरना धर्म कोड एक बड़ा और संवेदनशील मुद्दा बनकर उभरा है। राज्य की सत्ता में साझेदार झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस, दोनों दल इस मुद्दे को लेकर हमलावर रुख अपनाए हुए हैं और केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ा रहे हैं। उनका उद्देश्य आदिवासी समुदाय के धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को संविधानिक मान्यता दिलवाना है.
कांग्रेस का राजभवन के समक्ष प्रदर्शन.
सोमवार को रांची में कांग्रेस ने राजभवन के बाहर धरना-प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में पार्टी के झारखंड प्रभारी के. राजू, सह प्रभारी श्रीबेला प्रसाद, प्रदेश अध्यक्ष केशव महतो कमलेश समेत कई वरिष्ठ नेता, विधायक और मंत्री शामिल हुए। सभी ने एक स्वर में केंद्र सरकार से जनगणना में अलग ‘सरना धर्म कोड‘ की मांग की।
प्रदर्शन के दौरान के. राजू ने कहा कि,
“आदिवासियों का यह मौलिक अधिकार है कि उन्हें उनके धर्म और पहचान के आधार पर एक अलग धर्म कोड मिले, ठीक वैसे ही जैसे अन्य राज्यों में कुछ आदिवासी समूहों को मिला है।
झामुमो का 27 मई को राज्यव्यापी प्रदर्शन.
झामुमो भी इस मुद्दे को लेकर पीछे नहीं है। पार्टी ने 27 मई को राज्यभर में जिला मुख्यालयों पर विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है। इस अभियान का प्रमुख नारा है:
“सरना कोड नहीं तो जनगणना नहीं”।
यह आंदोलन आदिवासी अस्मिता और सांस्कृतिक अधिकारों की लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है, जो आगामी विधानसभा चुनावों में झामुमो और कांग्रेस की रणनीति का अहम हिस्सा है.
आदिवासी वोट बैंक पर सीधा फोकस.
झारखंड की लगभग 26% आबादी आदिवासी है, और राज्य की 28 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। 2019 और 2024 में इन सीटों पर झामुमो-कांग्रेस गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया है। इस पृष्ठभूमि में सरना धर्म कोड पर मुखर रुख इस वोट बैंक को और मज़बूत करने की रणनीति मानी जा रही है.
भाजपा का अस्पष्ट रवैया और राजनीतिक नुकसान.
वहीं, भाजपा इस मुद्दे पर स्पष्ट रुख नहीं अपना पाई है। उसने सरना और ईसाई आदिवासियों के बीच एक अंतर पैदा करने की कोशिश की, यह कहते हुए कि ईसाई आदिवासी आरक्षण का अनुचित लाभ ले रहे हैं। लेकिन यह रणनीति 2024 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में नाकाम रही।
- विधानसभा चुनावों में भाजपा सिर्फ एक आदिवासी आरक्षित सीट जीत सकी।
- लोकसभा चुनावों में वह एक भी आदिवासी सुरक्षित सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई
गठबंधन की जमीनी रणनीति.
झामुमो-कांग्रेस गठबंधन ने स्थानीय और सांस्कृतिक मुद्दों को प्राथमिकता दी है — जैसे कि:
- सरना धर्म कोड
- 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति
- मंइयां सम्मान योजना
इन मुद्दों ने आदिवासी और स्थानीय गैर-आदिवासी समुदायों के बीच गठबंधन की स्थिति को मजबूत किया है। इसके उलट, भाजपा की “रोटी, बेटी और माटी” जैसी भावनात्मक रणनीतियां और बांग्लादेशी घुसपैठ जैसे मुद्दे जनता से कनेक्ट नहीं कर पाए.
केंद्र की भूमिका होगी निर्णायक.
सरना धर्म कोड के मुद्दे पर राज्य सरकार की आक्रामकता एक रणनीतिक कदम है, जिससे केंद्र सरकार पर राजनीतिक दबाव बनाया जा सके। लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि केंद्र सरकार इस मांग पर क्या रुख अपनाती है।
झारखंड में सरना धर्म कोड अब केवल धार्मिक या सांस्कृतिक विषय नहीं रहा, यह सीधे तौर पर राजनीतिक,रणनीति और जनाधार की लड़ाई का केंद्र बन गया है। आने वाले दिनों में यह देखा जाना बाकी है कि केंद्र की प्रतिक्रिया, इस मुद्दे को राजनीतिक हथियार बनाती है या संवैधानिक समाधान की ओर ले जाती है।