
हेमंत सोरेन के जीवन पर एक नज़र.
परवेज़ आलम
रांची, झारखंड : “क्या एक नेता का जेल जाना, उसकी छवि को तोड़ता है या निखारता है? क्या संघर्ष की आग में तपकर ही असली नेता बनता है? और क्या झारखंड अब एक नए नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है, या पुराने नामों का ही नया संस्करण देख रहा है?”
ये सवाल तब ज़्यादा ज़रूरी हो जाते हैं, जब एक नेता जेल से बाहर आते ही न सिर्फ़ फिर से मुख्यमंत्री बनता है, बल्कि अब पूरे संगठन की कमान भी संभाल लेता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं हेमंत सोरेन की, जो अब झारखंड मुक्ति मोर्चा के नए केंद्रीय अध्यक्ष हैं। एक दौर में छात्र मोर्चा से राजनीति की शुरुआत करने वाला नौजवान, आज पार्टी का सर्वोच्च चेहरा बन चुका है।
“हेमंत नहीं रुके, थमे नहीं, झुके नहीं…”
जेल गए, लेकिन लड़ाई नहीं छोड़ी। 5 महीने के राजनीतिक वनवास के बाद जब हेमंत बाहर आए, तो सिर्फ़ एक नेता नहीं, एक प्रतीक बनकर उभरे — सत्ता के दमन के ख़िलाफ़, अपने अधिकारों के लिए लड़ते झारखंडी स्वाभिमान के प्रतीक।
हेमंत सोरेन की कहानी कोई सामान्य राजनीतिक यात्रा नहीं है। यह कहानी है नेमरा के एक किसान परिवार से उठे उस बेटे की, जिसने राजनीतिक विरोधियों से लेकर सत्ता तक, सबका सामना किया।
और अब, 2025 की गर्मियों में — शिबू सोरेन के 38 साल लंबे अध्यक्षीय कार्यकाल का अंत कर, बेटे हेमंत ने वह कुर्सी संभाल ली है, जो कभी उनके पिता के लिए भी संघर्षों की तपिश में गढ़ी गई थी।
जनता का सवाल — “जेल से नेतृत्व तक, क्या यही लोकतंत्र की परिभाषा है?”
झारखंड की जनता जानना चाहती है — क्या खनन घोटाले में जेल जाना, राजनीतिक साज़िश थी या सच्चाई?
लेकिन सच्चाई ये है कि हेमंत जब जेल से बाहर आए, तो पार्टी और ज़्यादा संगठित दिखी। कल्पना सोरेन, उनकी पत्नी, सामने आईं — एक नेता के रूप में, एक रणनीतिकार के रूप में। ये कोई साधारण वापसी नहीं थी, ये एक जोड़ी की ताक़त थी — जिसने सत्ता को फिर से अपनी मुट्ठी में किया।
संघर्ष की जड़ें — नेमरा से बरहेट तक का रास्ता आसान नहीं था
नेमरा गांव का एक बच्चा, जो सरकारी स्कूल में पढ़ा, पटना में इंटर तक पहुंचा, और बीआईटी मेसरा जैसे संस्थान में दाखिला लेकर भी राजनीति की पुकार पर पढ़ाई छोड़ दी — आज उसी का नाम झारखंड की हर पंचायत में गूंज रहा है।
2005 में जब पहली बार चुनाव लड़े, तो हार मिली। खुद के ही दल के सीनियर नेता ने हराया। लेकिन यही वो समय था जब हेमंत ने सीखा — राजनीति में सबसे ज़रूरी चीज़ क्या है? धैर्य।
2009 में भाई दुर्गा सोरेन की मौत ने हेमंत को परिवार और राजनीति — दोनों का उत्तराधिकारी बना दिया।
सियासत का सवाल — “क्या JMM अब हेमंत की पार्टी है?”
जब दिशोम गुरु यानी शिबू सोरेन ने हेमंत के नाम का प्रस्ताव रखा, तो हज़ारों कार्यकर्ताओं ने नारा लगाया — “हेमंत ही भविष्य है!”
JMM की केंद्रीय समिति में अब 289 सदस्य हैं। लेकिन सवाल ये भी है — क्या ये सिर्फ़ एक खानदान की विरासत है, या जनआंदोलन की नई शक्ल?
झारखंड की जनता का सवाल — “कितना बदलेगा हेमंत का झारखंड?”
2019 में उन्होंने भाजपा को सत्ता से बेदखल किया, 2024 में जेल से आकर फिर मुख्यमंत्री बने। अब पार्टी की कमान भी उन्हीं के हाथ में है। लेकिन क्या इससे झारखंड की ज़मीन पर बदलाव आएगा?
क्या आदिवासियों की ज़मीन बचेगी? क्या युवाओं को रोज़गार मिलेगा? क्या शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा पर नई नीति बनेगी?
या फिर, ये भी वही राजनीति निकलेगी — चेहरे बदलते रहेंगे, हालात वही रहेंगे?