
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक बेहद अहम और संवेदनशील सवाल के जरिए वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली बहस को एक नए मोड़ पर पहुंचा दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा – “क्या अब मुसलमानों को हिन्दू धार्मिक ट्रस्टों में शामिल होने की अनुमति दी जाएगी?” यह सवाल केवल कानूनी नहीं, बल्कि धर्म, समानता और राज्य की तटस्थता से भी जुड़ा हुआ है।
चीफ जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार और के वी विश्वनाथन की बेंच ने इस अधिनियम की कई धाराओं पर गंभीर सवाल उठाए, खासकर ‘वक्फ बाय यूजर’ की धारणा पर।
क्या है ‘वक्फ बाय यूजर’? और कोर्ट को इसमें आपत्ति क्यों?
‘वक्फ बाय यूजर’ एक पारंपरिक इस्लामी अवधारणा है, जिसके अनुसार यदि कोई संपत्ति वर्षों से धार्मिक या समाजसेवी कार्यों के लिए इस्तेमाल हो रही हो, तो उसे वक्फ संपत्ति माना जा सकता है – चाहे इसके आधिकारिक दस्तावेज हों या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया, “ऐसी संपत्तियों को रजिस्टर कैसे किया जाएगा? उनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं। इससे संभावित गड़बड़ियाँ भी हो सकती हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हर मामला झूठा है।”
न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि वे इस प्रथा के पक्ष-विपक्ष में पूर्व ब्रिटिश प्रिवी काउंसिल के फैसलों की समीक्षा कर चुके हैं, जिनमें इस व्यवस्था को मान्यता मिली थी। बेंच का मानना था कि इस धारणा को पूरी तरह से ख़त्म कर देना व्यावहारिक समस्याएँ पैदा कर सकता है।
केंद्र की दलील और सुप्रीम कोर्ट की तीखी प्रतिक्रिया.
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि “कई मुस्लिम खुद नहीं चाहते कि वे वक्फ अधिनियम के तहत आएं।”
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा, “तो क्या इसका मतलब यह है कि अब आप मुसलमानों को हिंदू धर्मस्थलों के प्रबंधन में शामिल करेंगे? कृपया यह बात स्पष्ट करें।” यह टिप्पणी संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की ओर संकेत करती है।
बेंच ने यह भी साफ किया कि “100 साल पहले वक्फ घोषित की गई संपत्तियों को मनमाने तरीके से दोबारा वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। कोई भी विधानमंडल किसी न्यायिक निर्णय, आदेश या डिक्री को रद्द नहीं कर सकता – केवल आधार को ही चुनौती दी जा सकती है।”
क्या यह मामला सुप्रीम कोर्ट में सुना जाना चाहिए या हाईकोर्ट भेजा जाए?
बेंच ने याचिकाकर्ताओं और केंद्र से यह भी जानना चाहा कि क्या इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर होनी चाहिए या इसे संबंधित हाईकोर्ट्स को भेजा जाए?
चीफ जस्टिस खन्ना ने दोनों पक्षों को निर्देश दिया कि वे दो बातें स्पष्ट करें –
- क्या यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचार योग्य है?
- आप इस कानून में किन प्रमुख मुद्दों पर बहस करना चाहते हैं?
उन्होंने जोड़ा – “हम यह नहीं कह रहे कि सुप्रीम कोर्ट इस पर विचार नहीं कर सकता, लेकिन स्पष्टता ज़रूरी है।”
वरिष्ठ वकीलों की दलीलें: सिब्बल और सिंघवी की आपत्ति.
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि यह अधिनियम असंवैधानिक है क्योंकि यह केवल मुसलमानों को वक्फ बनाने की अनुमति देता है। उन्होंने पूछा – “राज्य यह कैसे तय कर सकता है कि कोई मुसलमान है या नहीं? और यदि कोई पिछले पाँच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है तभी वह वक्फ बना सकता है – यह बात राज्य कैसे तय कर सकता है?”
वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने तर्क दिया कि यह मामला पूरे देश को प्रभावित करता है, इसलिए इसे किसी एक हाईकोर्ट में ट्रांसफर नहीं किया जाना चाहिए। उनके अनुसार यह एक ‘ऑल इंडिया इश्यू’ है और सुप्रीम कोर्ट को ही इसकी निगरानी करनी चाहिए।
वक्फ संशोधन अधिनियम 2025: राजनीतिक और कानूनी पृष्ठभूमि.
वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को संसद के दोनों सदनों से लंबी बहसों के बाद पारित किया गया और 5 अप्रैल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिली।
- राज्यसभा: 128 समर्थन में, 95 विरोध में
- लोकसभा: 288 समर्थन में, 232 विरोध में
इस कानून के खिलाफ अब तक 72 याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं, जिनमें प्रमुख नाम हैं:
- असदुद्दीन ओवैसी (AIMIM)
- ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB)
- जमीयत उलेमा-ए-हिंद
- DMK
- कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी और मोहम्मद जावेद
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कैविएट दायर की है ताकि कोर्ट कोई भी अंतरिम आदेश पारित करने से पहले केंद्र की दलील सुने।
वक्फ की कानूनी अवधारणा क्या है?
वक्फ एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है – किसी संपत्ति को स्थायी रूप से धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए दान करना। यह संपत्ति किसी मस्जिद, मदरसे, कब्रिस्तान, स्कूल, अनाथालय आदि के लिए इस्तेमाल हो सकती है, लेकिन इसे बेचा या हस्तांतरित नहीं किया जा सकता।
विवाद का मूल बिंदु क्या है?
विवाद का मुख्य बिंदु ‘वक्फ बाय यूजर’ की मान्यता को समाप्त करना है। याचिकाकर्ताओं का दावा है कि यह इस्लामी परंपरा का हिस्सा है और इसे अचानक खत्म करना मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है। वहीं सरकार का तर्क है कि इस प्रथा के नाम पर कई फर्जी दावे होते हैं और संपत्तियों पर अवैध कब्जे को वैधता दी जा रही है।
यह मामला केवल एक कानून की संवैधानिकता नहीं, बल्कि भारत की धर्मनिरपेक्षता, समानता और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मूलभूत सिद्धांतों को परखने वाला बन गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह सवाल – “क्या मुसलमान हिन्दू ट्रस्टों में शामिल हो सकते हैं?” – दरअसल संविधान की आत्मा की परीक्षा है।
अगली सुनवाई में तय होगा कि यह मामला किस दिशा में जाएगा – लेकिन इतना तो तय है कि ‘वक्फ अधिनियम 2025’ आने वाले समय में देश के धार्मिक और संवैधानिक विमर्श के केंद्र में रहेगा।