परवेज़ आलम
झारखंड, एक ऐसा राज्य जो 15 नवंबर 2000 को नयी उम्मीदों के साथ भारत के नक्शे पर उभरा। पहाड़ों, जंगलों, और अपनी सांस्कृतिक धरोहर के साथ यह राज्य एक युवा जोश लेकर आया था। माटी की खुशबू में भीगता यह प्रदेश अपने नायकों और विरासत की कहानियों से समृद्ध है। लेकिन 25 साल का यह सफर एक सवाल छोड़ता है: क्या झारखंड ने वह हासिल किया, जिसके लिए इसका जन्म हुआ था?
सपने जो अधूरे रह गए
15 नवंबर की वह सुबह, जब झारखंड बना, हर आंख में एक सपना था। अपने राज का सपना। लेकिन झारखंड का यह सपना राजनीतिक अस्थिरता की भेंट चढ़ गया। सत्ता के खेल ने इसे कमजोर किया। कुर्सी बचाने और गिराने की राजनीति ने झारखंड को उसकी पटरी से उतार दिया। नव निर्माण का विजन सत्ता के गलियारों में गुम हो गया।
विकास की पटरी पर लड़खड़ाता झारखंड
इस प्रदेश को सरपट दौड़ना था, लेकिन यह लड़खड़ाता रहा। शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के क्षेत्र में झारखंड पिछड़ा रह गया। न अच्छे अस्पताल बने, न ही शिक्षा के केंद्र। लाखों युवा आज भी बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिए झारखंड छोड़ने को मजबूर हैं। सरकारें आईं और गईं, लेकिन जनता के सवाल और दर्द बरकरार रहे।
भ्रष्टाचार और लूट की कहानियां
झारखंड का नाम विकास के मॉडल से ज्यादा भ्रष्टाचार की कहानियों के लिए लिया गया। लूट और घोटालों ने इस राज्य को पीछे धकेल दिया। विस्थापन, पलायन और बेरोजगारी जैसे मुद्दे सत्ता की प्राथमिकताओं में कभी जगह नहीं बना सके।
उम्मीदों का दीया अब भी जल रहा है
पिछले कुछ सालों में राजनीतिक स्थिरता आई है। झारखंड ने कुछ कदम आगे बढ़ाए हैं। लेकिन सपनों का पूरा होना अभी बाकी है। राज्य को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार में नए प्रतिमान गढ़ने की जरूरत है। झारखंड बेचैन है, अपने विकास के रास्ते तलाश रहा है।
अब सवाल यह है…
झारखंड ने 25 साल पूरे कर लिए हैं। लेकिन क्या यह राज्य अपनी पहचान को वह ऊंचाई दे पाया है, जिसकी उम्मीद इसकी माटी और इसके लोग करते थे? आने वाले दिनों में सरकार बदलेगी, राजनीतिक समीकरण बनेंगे। लेकिन झारखंड को वह जवाब चाहिए, जो उसके दिल में पिछले 25 सालों से धड़क रहा है।
झारखंड… सवालों से भरा प्रदेश। सपनों के बीच उलझी तस्वीर। लेकिन उम्मीद अब भी कायम है।