झारखंड मुक्ति मोर्चा: संघर्ष, सत्ता और सतत यात्रा

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परवेज़ आलम

झारखंड की राजनीति में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) केवल एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक आंदोलन की तरह है। यह संघर्ष और सत्ता की वो कहानी है, जिसने झारखंड की राजनीति को न केवल नया रूप दिया, बल्कि इसे एक अलग पहचान भी दिलाई। झारखंड आंदोलन से जन्मी यह पार्टी आज सत्ता के केंद्र में है, लेकिन क्या इसका मूल संघर्ष अभी भी वही है? क्या झामुमो अपने मूल सिद्धांतों पर कायम है या सत्ता की राजनीति में उलझ चुका है?

झंडा मैदान से शुरू हुआ सफर

4 मार्च 1973 को गिरिडीह के ऐतिहासिक झंडा मैदान में एक रैली के दौरान झामुमो की नींव रखी गई थी। यह महज एक पार्टी की स्थापना नहीं थी, बल्कि झारखंडी अस्मिता की एक नई शुरुआत थी। 52 साल बाद, वही झंडा मैदान फिर से इतिहास को दोहराने जा रहा है। 4 मार्च को झामुमो अपना 52वां स्थापना दिवस मनाएगा, जिसमें मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सहित कई बड़े नेता शिरकत करेंगे। संध्या 5 बजे से शुरू होने वाले इस समारोह में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी धूम रहेगी।

सज चुका है झंडा मैदान, दिख रहा सिर्फ हरा रंग

गिरिडीह के झंडा मैदान और आसपास के इलाकों में झामुमो का रंग बिखर चुका है। 40 से अधिक तोरणद्वार लगाए गए हैं। हजारों होर्डिंग और झंडों से पूरा शहर हरे रंग में रंग चुका है। कार्यकर्ताओं में जोश है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या झामुमो केवल सत्ता तक सीमित रह गया है, या अब भी झारखंड के मूल मुद्दों पर संघर्षरत है? क्या हेमंत सरकार जनआंदोलन के उस मूलभूत लक्ष्य को पूरा कर रही है, जिसके लिए झारखंड अलग राज्य बना?

शिबू सोरेन: 34 वर्षों से पार्टी की कमान

झारखंड की राजनीति में एक अनोखी बात यह है कि झामुमो की कमान पिछले 34 वर्षों से एक ही व्यक्ति, शिबू सोरेन, के हाथों में है। 2021 में हुए अधिवेशन में उन्हें 10वीं बार अध्यक्ष और हेमंत सोरेन को तीसरी बार कार्यकारी अध्यक्ष चुना गया। यह दिखाता है कि पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की गुंजाइश अब भी सीमित है।

पांच बार सत्ता में झामुमो, लेकिन क्या बदल पाया झारखंड?

झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद से झामुमो अब तक पांच बार सत्ता में आ चुका है। दिलचस्प यह है कि हर बार मुख्यमंत्री सोरेन परिवार से ही बना।

  • 2005, 2008, 2009 में शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने।
  • 2013-14 और फिर 2019 से अब तक हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री हैं।

हालांकि, इनमें से चार सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं। कुछ सरकारें महज़ कुछ दिन चलीं, कुछ छह महीने तो कुछ 14 महीने ही चल सकीं। सवाल यह है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा बार-बार सत्ता में आने के बावजूद अपने एजेंडे को लागू करने में क्यों विफल रहा?

2019 और 2024: ऐतिहासिक जीत, लेकिन क्या असली बदलाव आया?

2019 में झामुमो ने 81 में से 30 सीटें जीतकर कांग्रेस और आरजेडी के साथ सरकार बनाई। 2024 में पार्टी ने 34 सीटों पर जीत दर्ज की और गठबंधन ने कुल 81 में से 56 सीटें जीतकर सत्ता में वापसी की। लेकिन क्या यह जीत सिर्फ सत्ता की जीत थी, या झारखंड के आम लोगों को भी इसका कोई फायदा हुआ? क्या इस सरकार में शिक्षा, रोजगार और जल-जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दे हल हो पाए?

संघर्ष के दिन: जब शिबू सोरेन को अंडरग्राउंड होना पड़ा

झारखंड मुक्ति मोर्चा का जन्म केवल एक राजनीतिक दल के रूप में नहीं हुआ था, बल्कि यह झारखंड की अस्मिता की लड़ाई थी। जब शिबू सोरेन 12 साल के थे, तब सूदखोरों ने उनके पिता की हत्या कर दी। इसके बाद उन्होंने महाजनों और शोषण के खिलाफ संघर्ष शुरू किया, जो कई बार हिंसक भी हुआ। उन्हें कई बार अंडरग्राउंड होना पड़ा। आखिरकार, धनबाद के जिलाधिकारी के.बी. सक्सेना और कांग्रेस नेता ज्ञानरंजन की पहल से उन्होंने आत्मसमर्पण किया और जेल गए।

‘सोनोत संताल’ और ‘शिवाजी समाज’ के विलय से बनी झामुमो

1972 में ‘सोनोत संताल’ और विनोद बिहारी महतो के नेतृत्व वाले ‘शिवाजी समाज’ के विलय से झामुमो का गठन हुआ। ट्रेड यूनियन नेता ए.के. राय की इसमें अहम भूमिका रही।

  • पहले अध्यक्ष: विनोद बिहारी महतो
  • पहले महासचिव: शिबू सोरेन

1972 मे धनबाद के डीसी केबी सक्सेना थे वे आदिवासियों के शोषण के  विरुद्ध कड़ी कारवाई करने वाले ईमानदार अधिकारियों मे गिने जाते थे । उनकी कार्यशैली और विचारधारा ने शिबू सोरेन को काफी प्रभावित किया । डीसी केबी सक्सेना  का आकर्षण उन्हे प्रसाशन के करीब ले आया । इससे उनकी संघरशीलता बाधित हुई और  आपताकाल के दौरान उन्होने 20 सूत्री कार्यक्रम का समर्थन किया । काँग्रेस की उनकी निकटता बढ़ती गयी और विनोद बिहारी महतो तथा एके राय से दूरी बढ़ाने लगी ।  1980 के चुनाव मे शिबू सोरेन ने काँग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन कर लिया और महतो समर्थक उनसे अलग हो गए  और जेएमएम विभाजित हो गया । 1980 में शिबू सोरेन पहली बार दुमका से सांसद बने। बिहार विधानसभा चुनाव में संथाल परगना की 18 में से 9 सीटें जीतकर पार्टी ने पहली बार अपनी ताकत दिखाई।1990 मे बिहार मे जब पहली बार लालू प्रसाद की सरकार बनी तो जेएमएम ने सरकार को संरता के एवज मे सत्ता सुख का आनंद उठाया ।

हेमंत सोरेन: नया नेतृत्व, लेकिन पुरानी राजनीति?

2015 में जमशेदपुर अधिवेशन में हेमंत सोरेन को कार्यकारी अध्यक्ष चुना गया और पार्टी एक नए दौर में प्रवेश कर गई। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह नया दौर झारखंड की असली समस्याओं को हल कर सका है? आज भी आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की लड़ाई जारी है। बेरोजगारी और भ्रष्टाचार झारखंड की बड़ी समस्या बने हुए हैं।

क्या झारखंड को नई राजनीति की जरूरत है?

झामुमो की राजनीति अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रही है। सवाल यह है कि क्या झारखंड को एक नई राजनीति की जरूरत है? क्या झामुमो अपनी पारिवारिक राजनीति से बाहर निकलकर नए नेतृत्व को जगह देगा? झारखंड में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की स्थिति आज भी खराब बनी हुई है। क्या झामुमो अब भी जनआंदोलन की उस धार को बरकरार रख पाएगा?

संघर्ष से सत्ता तक: लेकिन आगे क्या?

झारखंड मुक्ति मोर्चा की यात्रा केवल सत्ता प्राप्ति तक सीमित नहीं है। यह झारखंड की आत्मा से जुड़ा आंदोलन है, जिसने राज्य को अलग पहचान दिलाई। लेकिन अब जब पार्टी सत्ता में है, तो क्या यह अपने मूल संघर्ष को भूल रही है? क्या यह पार्टी सत्ता और सिद्धांतों के बीच संतुलन बनाए रख पाएगी? यह आने वाला वक्त ही बताएगा।

 

The News Post4u

Perwez Alam is one of the founder of The News Post4U, he brings over 4 decades of Journalism of experience, having worked with Zee News, Sadhna News, News 11, Bureau cheif of Dainik Jargarn, Govt. Accredited Crosspondent of Hindustan daily, Jansatta ect, He loves doing human intrest, political and crime related stories. Contact : 9431395522

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