
NEW DELHI : इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश शेखर कुमार यादव के खिलाफ विपक्ष का महाभियोग प्रस्ताव देना क्या न्यायपालिका पर सीधा हमला है, या फिर न्याय की परिभाषा पर खुद न्यायपालिका को सोचने का मौका?
एक कार्यक्रम में न्यायमूर्ति यादव की कथित टिप्पणियों को लेकर विवाद गहराता जा रहा है। राज्यसभा में 55 विपक्षी सांसदों ने महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए। कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, पी चिदंबरम, रणदीप सिंह सुरजेवाला, प्रमोद तिवारी, विवेक तन्खा, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश, मनोज कुमार झा, साकेत गोखल, मुकुल वासनिक, नसीर हुसैन, राघव चड्ढा, फौजिया खान, संजय सिंह, एए रहीम, वी शिवदासन और रेणुका चौधरी जैसे नेता इस प्रस्ताव के केंद्र में हैं। सवाल यह है कि जब न्यायाधीश से संवैधानिक दायित्वों का पालन अपेक्षित है, तो क्या यह मामला संविधान के अनुच्छेद 51ए (ई) के खिलाफ जाता है, जो सद्भाव को बढ़ावा देने की बात करता है?
“न्याय का चेहरा और राजनीति का साया”
विहिप के मंच पर अल्पसंख्यकों को लेकर कथित टिप्पणी क्या एक न्यायाधीश के सार्वजनिक व्यवहार के मानदंडों का उल्लंघन है? या फिर यह उस विचारधारा का हिस्सा है, जो संविधान के सेकुलर फ्रेमवर्क को चुनौती देती है?
सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया।इलाहाबाद हाईकोर्ट से रिपोर्ट मांगी गई। पर विपक्ष ने इसी बीच राज्यसभा में नोटिस देकर यह जता दिया कि इस बार बात सिर्फ भाषण की नहीं, न्यायपालिका की गरिमा की है।
“महाभियोग और बहुसंख्यकवाद की राजनीति”
नोटिस में आरोप है कि न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणियां पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। क्या यह महज संयोग है कि यह टिप्पणी बहुसंख्यकवाद को प्राथमिकता देने वाली राजनीति के करीब नजर आती है? विपक्ष के नेता कहते हैं कि न्यायपालिका का कोई भी हिस्सा अगर संविधान से भटकेगा, तो उस पर सवाल उठेंगे।
“आखिर न्याय कौन करेगा?”
महाभियोग प्रस्ताव के इस नोटिस ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि लोकतंत्र में न्यायपालिका कितनी स्वतंत्र है? और अगर स्वतंत्र है, तो क्या वह राजनीति से प्रभावित हो रही है?
न्याय की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के हर शब्द की कीमत होती है। पर जब वह शब्द संविधान से टकराते हैं, तो जवाबदेही तय करना जरूरी हो जाता है।
अब देखना यह है कि राज्यसभा के सभापति इस नोटिस को मंजूरी देते हैं या नहीं। और क्या यह मामला न्यायपालिका में सुधार की नई बहस की शुरुआत करेगा?