
रांची से रिपोर्ट ……..
आज झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीमा पर आलू की लड़ाई से जुड़ी खबर लेकर आया हूं। जी हां, आलू, जिसे हर घर के रसोई में सबसे जरूरी चीज़ माना जाता है, वह इन दिनों राजनीतिक और प्रशासनिक रस्साकशी में फंस गया है।
डिबूडीह चेकपोस्ट पर सन्नाटा।
पश्चिम बंगाल पुलिस ने लगातार छठे दिन आलू से लदे ट्रकों को झारखंड की सीमा में प्रवेश नहीं करने दिया। केवल एक-दो ट्रक ही पहुंचे, लेकिन उन्हें भी वापस गोदाम लौटा दिया गया। वजह? पश्चिम बंगाल सरकार का आदेश।
आलू अब राजनीति का सबक बन गया है।
कभी ऐसा सोचा था कि एक आलू, जो खाने की प्लेट में एक आम चीज़ है, वह राज्य सरकारों के बीच इतना बड़ा विवाद खड़ा कर देगा? पश्चिम बंगाल से आने वाला आलू झारखंड की रसोई का बड़ा हिस्सा पूरा करता था। लेकिन अब झारखंड को सहारा मिला है उत्तर प्रदेश से। यूपी की मंडियों से आलू की खेप लगातार रांची के पंडरा कृषि बाजार समिति में पहुंच रही है।
लेकिन कीमतों का खेल अभी भी जारी है।
रांची के थोक विक्रेता सुनील साहू ने बताया कि मांग और आपूर्ति के आधार पर कीमतों में उतार-चढ़ाव चलता रहता है। आलू के दाम, सिर्फ झारखंड में नहीं, बल्कि आसपास के राज्यों के बाजारों से भी प्रभावित होते हैं। पर राहत की बात है कि फिलहाल झारखंड में आलू की किल्लत नहीं है।
झारखंड को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश।
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) के कुलपति डॉ. एससी दुबे ने इस समस्या को गंभीरता से लिया है। उनका कहना है कि झारखंड में आलू की फसल देर से तैयार होती है, इसलिए राज्य को दूसरे राज्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। बीएयू अब जल्दी तैयार होने वाली ‘अगात’ आलू की किस्मों पर शोध करेगा। यह झारखंड को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक अहम कदम होगा।
आने वाले कल की तैयारी।
डॉ. दुबे ने कोल्ड स्टोरेज की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया, ताकि फसल को भविष्य की जरूरतों के लिए संरक्षित किया जा सके। उन्होंने नई पीढ़ी को कृषि पाठ्यक्रम में आने का आह्वान किया, क्योंकि कृषि का विकास तभी होगा, जब इसमें नई सोच वाले लोग कदम रखेंगे।
आलू का यह मसला सिर्फ खाने-पीने की चीज का सवाल नहीं है।
यह सवाल है कि कैसे एक साधारण फसल प्रशासनिक फैसलों और राज्य की नीतियों का चेहरा बन जाती है। यह सवाल है कि आत्मनिर्भरता की बात करने वाला झारखंड, क्यों पड़ोसी राज्यों पर निर्भर है।