
परवेज़ आलम की विश्लेषणात्मक रिपोर्ट……
आज चर्चा में है ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ बिल। सवाल वही पुराना—ये बिल क्या है, क्यों है, और आखिर इसे पास कराने की इतनी हड़बड़ी क्यों?”
लोकसभा में मंगलवार को जब इस बहुचर्चित बिल पर वोटिंग होनी थी, तब भाजपा के कई सांसद नदारद थे। पार्टी ने तीन लाइन का ‘व्हिप’ जारी किया था, लेकिन फिर भी 20 से ज्यादा सांसद सदन में नहीं पहुंचे। अब इनकी गैरमौजूदगी पर भाजपा ने ‘नोटिस’ जारी करने का फैसला लिया है। पर ये सवाल क्यों नहीं उठता कि जिस पार्टी ने ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया, उसके अपने सिपाही इस ‘युद्ध’ से क्यों गायब हो गए?”
“बिल के पक्ष में पड़े 269 वोट, विपक्ष में 198 वोट। यानी गणित बता रहा है कि सियासत में ‘पक्ष और विपक्ष’ दोनों की गिनती से लोकतंत्र की असली नब्ज टटोली जा रही है। लेकिन जब सत्ताधारी दल की ताकत ‘व्हिप’ के बावजूद पूरी नहीं दिखी, तो क्या ये संकेत है ‘अंदरूनी असहमति’ का?”
“दो तिहाई बहुमत की बात करें तो 362 सांसद चाहिए। लोकसभा में NDA के पास 292 सीटें हैं और राज्यसभा में सिर्फ 112। संविधान बदलने के लिए जरूरी ‘मैजिक नंबर’ अभी दूर है। इसलिए जेपीसी का रास्ता अख्तियार किया गया। सरकार कहती है ‘विचार-विमर्श’ होगा, लेकिन सवाल ये भी है कि क्या ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ से लोकतंत्र मजबूत होगा या कमजोर?”
“क्योंकि देखिए, चुनाव सिर्फ मतदान नहीं, जनता का त्योहार है। सवाल ये है कि ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ से ‘चुनाव की आत्मा’ खत्म तो नहीं हो जाएगी? क्या जनता का ‘शोर’ कम करने की कवायद चल रही है? और भाजपा के सांसदों की गैरमौजूदगी क्या सिर्फ इत्तेफाक है या इशारा? ये वो सवाल हैं जिनका जवाब सरकार के पास भले ही न हो, लेकिन वक्त जरूर मांगेगा।”