
परवेज़ आलम की रिपोर्ट…..
झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए किसी झटके से कम नहीं हैं। 28 आदिवासी सीटों में से सिर्फ़ एक सीट पर जीत, यह आंकड़ा पार्टी की सियासी जमीन खिसकने की कहानी खुद ब खुद कहता है। आदिवासी इलाकों में पार्टी की पकड़ कमजोर हो चुकी है। दिल्ली से लेकर रांची तक मंथन का दौर जारी है, लेकिन क्या बीजेपी उस दर्द की सही नब्ज़ पकड़ पाएगी जिसने उसे इस हार की कगार पर ला दिया ?
आदिवासी वोटर और बीजेपी का बिखरता समीकरण
झारखंड में बीजेपी की हार के पीछे आदिवासी वोटरों की नाराज़गी साफ झलकती है। पार्टी ने आरएसएस के जरिए आदिवासियों को जोड़ने की हर कोशिश की, लेकिन ईसाई मिशनरियों और मुस्लिम समुदाय का गठजोड़, बीजेपी की कोशिशों पर भारी पड़ा। आदिवासी इलाकों में ईसाई मिशनरियों का बढ़ता प्रभाव, सरना आदिवासियों की घटती संख्या और संघ की कमजोर होती पकड़ ने बीजेपी की सियासी पकड़ को ढीला कर दिया।
गुमला, लोहरदगा, बिशुनपुर और सिसई जैसे इलाकों में कभी संघ का मजबूत नेटवर्क हुआ करता था। वनवासी कल्याण केंद्र, एकल विद्यालय, और सरस्वती शिशु मंदिर जैसे संगठन आदिवासी समुदाय में संघ का प्रभाव बढ़ाते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों में इन संगठनों की गतिविधियां धीमी पड़ गई हैं। संघ से जुड़े सूत्र मानते हैं कि आर्थिक तंगी और संसाधनों की कमी से संघ की शाखाएं कमजोर पड़ी हैं।
दिल्ली में होगा निर्णायक मंथन
रांची में हार की समीक्षा के बाद अब दिल्ली में 3 दिसंबर को बीजेपी के शीर्ष नेताओं की बैठक होगी। जेपी नड्डा, अमित शाह, और अन्य वरिष्ठ नेता इस हार के कारणों पर मंथन करेंगे। सवाल यह है कि क्या यह बैठक सिर्फ हार के कारणों को तलाशेगी या जमीनी स्तर पर कुछ ठोस बदलाव भी होंगे?
गुमला से लेकर बिशुनपुर तक: बीजेपी का टूटता किला
गुमला जिले में बीजेपी को करारी शिकस्त मिली है। कभी इन इलाकों में वनवासी कल्याण केंद्र और विकास भारती जैसे संगठनों का बड़ा प्रभाव था। बिशुनपुर में अशोक भगत की पकड़ इतनी मजबूत थी कि टिकट का फैसला वही करते थे। लेकिन आज वहां झामुमो और चमरा लिंडा का दबदबा है।
क्या बीजेपी आत्मनिरीक्षण करेगी?
2019 के चुनाव में 25 सीटें जीतने वाली बीजेपी आज सिर्फ 21 सीटों पर सिमट गई है। आदिवासियों का झुकाव झामुमो और कांग्रेस की ओर बढ़ता जा रहा है। संघ की कमजोर होती भूमिका, बूथ मैनेजमेंट की खामियां और निचले स्तर पर कार्यकर्ताओं का उत्साह खत्म होना, ये सब पार्टी के लिए खतरे की घंटी है।
बीजेपी के पास अब ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं। जमीनी स्तर पर काम शुरू करना होगा, नए चेहरे लाने होंगे और पुराने, चूके हुए नेताओं से किनारा करना होगा। झारखंड कभी बीजेपी का गढ़ हुआ करता था, लेकिन अब यह पार्टी के लिए चुनौतीपूर्ण क्षेत्र बन गया है।
क्या बीजेपी समय रहते सबक लेगी या यह हार उसकी झोली में आने वाले और बड़े झटकों का ट्रेलर मात्र है? झारखंड की सियासत के इस बदलते परिदृश्य में बीजेपी का भविष्य सवालों के घेरे में है।